दुविधा — “lalit Hinrek”
किसान गर्व से कहता था कि मैं अन्न दाता हूं ,
इस राष्ट्र की ताकत हूं , और भविष्य निर्माता हूं ।
पर किसान अपने पुत्रों को अब , ‘किसान’ देखना नही चाहता
अपने खेतो की खुशबूओं को ,
लूटते देखना नही चाहता ।
वो बैलों की जोड़ी तो बस ,
छुटपन मे देखी थी ।
जब बकरियॉ थी, गायें थी ,
और लहराती खेती थी ।
ना पशुओं के झुण्ड है ,
ना वो बकरी वाले है ।
खण्डहर जैसे महल बचे है ,
और जंग लगे ताले है ।
पड़ लिखकर बेटा , बाबू बन जाये
पैसा नाम कमाकर , बस इज्जत दे पाये
खेती को यहॉ मजबूरी माना जाता है ,
दीन हीन की गाथा , मजदूरी माना जाता है ।
नौकरी को सफलता का मानक मोल बैठे है ,
खुशियों को पैसो के तराजू से तौल बैठे है ।
पर ऐक दिन ऐसा होगा , दुविधा ऐसी होगी
ना गेंहू की बलियॉ होगी , भूख आटे की तरसेगी ।
ना गॉव बचे होंगे , ना कोई खेती होगी
मशीन बने मानव की , क्या खूब तरक्की होगी ।
दुविधा मे हूं , फिर क्या सीख दूंगा
ये संस्कृति भी मेरी पीढ़ी तक सीमित है ।
बेटा तू भी पड़ ले , और बाबू बन जा
जब ये भाषा भी इसी जीवन तक जीवित है ।
क्या यही तरक्की की परिभाषा है ,
बस दुविधा मे हूं ।
क्या यही जीवन की अभिलाषा है ,
बस दुविधा मे हूं !!!!
2 replies on “दुविधा”
Very nice poem
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Thank you
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