वक़्त ठहरता नही है और तुम्हारे सारे आवरण , मुखौटे धरे के धरे रह जाते है । इस तालाब के किनारे क्या ढूँढ रहे हो ? ये उजाले ??
ये परछाईं ही तो है , लौ जो जल रही है वो तो दिल मे है ।
आज वापस जाकर आइने के सामने खड़े हो जाना और देखते रहना जब तक तुमको तुम्हारा मुखौटा न मिल जाऐ ।
मिल गया तो ऐतबार करना कि क्यों इतनी मासूमियत से तू घर कर गया ।
ऐक शेर अर्ज करता हूँ तुम्हारे लिये
“तुम तो जमाने को बदलने निकले थे “ललित”
लेकिन कमबख़्त जमाने ने तुमको बदल डाला ”
ज़्यादा बड़ा शायर नही लेकिन बात इतनी गहरी कह गया है।
वैसे भी खुश कौन है आज ?
कोई भी नही , सबने तो यहॉ मुखौटे पहन रखे है ।रोने वाले हँसने की ऐक्टिंग कर रहे है । हँसने वाले बेवजह रो रहे है । कोई पड़ोसी की तरक़्क़ी से दुखी है तो कोई परिवार की तरक़्क़ी से । कोई तो बिना बात के दुखी है । ये ज़माना मुखौटों का ज़माना है , यहॉ तुम फ़क़ीर हो तो ये कौन जानता है!
“मुखौटे “ ~ a poem by Lalit Hinrek
शहद सरीखे प्याले जो जिव्ह्वा मे ले के चलते थे ,
डंक मारते उनको ही , अक्सर मैने देखा है ।
कॉन्धो मे शाबाशी के थपके देने वालों को भी ,
ईर्ष्या के दामन मे अक्सर जलते भुनते देखा है ।
आदर्शो पर चलने वाले मन के सच्चे यारों को भी
अपनो का ही अक्सर उपहास उड़ाते देखा है ………..।
आवरण के खौलो मे , चरित्र छुपाने वालों को
भौला भाला सज्जन जैसा , मुखौटा लगाने वालों को
ख़ूब तरक़्क़ी करने से , इक़बाल तुम्हारा ऊँचा हो
शौहरत हो , दौलत हो और नाम तुम्हारा ऊँचा हो ।
भयभीत हुआ हूँ , बदल रहा हूँ
कि मैं भी ऐसा हो जाऊँ
ज़हर रगो मे भर जाये
और ईर्ष्या का दामन हो जाऊँ ।
मन के सच्चे कुछ मानव से
उम्मीद जगाना चाहता हूँ
मुखौटों के संसार से अब
बस ध्यान हटाना चाहता हूँ ।