“बर्फ़बारी ” ~ Lalit Hinrek
छिप गयी हरियाली सफ़ेद चादरों मे
गुमसूमी है छायी चकोर , वानरों मे
ठण्डी मे क्या खॉये बड़ा सवाल हो गया है !
चाय पकौड़ों मे दिल लपलपाये हो चला है
सुबह से मॉ ने मेरे कान ढक दिये है
ठण्डी की वजह से दस्ताने भी दिये है
लेकिन उदण्डी मैं तो निकल पडूगॉ
अपने झबरू मित्र , कालू के संग चलूँगा
जो बर्फ़ के मैदान मे मेरे लंगोटिया जमे है
गोले बना बना के आपस मे भिड़ चुके है
वो पिठ्ठू ,गुल्ली डण्डा या कहूँ कबड्डी
वो गोटियॉ न खेली तो क्या बचपन जिये तुम !!
आज तो सूरज से भी ,जैसे चाँदनी निकल पड़ी है ,
मोती लिए चादरों मे , हर पहर चमक पड़ी है ।
ठण्डी आ गयी है , बर्फ़ छा गयी है
दिन बिदुक गये है और राते लम्बी सी है !
पोष का महीना अपने ऊफान पे है
भूत प्रेत गॉव के सब तूफ़ान पे है !
खूब सर्द रात अब आराम कर लिया है ,
थोड़ी मस्ती के लिये मन, बस तरस रहा है
बर्फ़ पड़ गयी है , स्कूल बन्द पड़े है
ना ख़ुशी सँभल रही , ना हँसी सभंल रही है ।
पहाड़ के बचपनों मे तो , ये आम बात हो गयी है
जो बर्फ़ ये पड़ी है , मस्ती उमड. पड़ी है ।