मैं ऐक छोटे से क़स्बे मे रहता था । गॉव मे जातपात , छुआ छूत और अंधविश्वास के ढकोसलों का पूरा वातावरण था । गॉव मे सवर्ण (राजपूत ऐवम् ब्राह्मण) तथा हरीजन सब मिलकर रहते थे । मैं छोटी जाती से था । मेरे परिवार मे माता पिता तथा ऐक बडी बहन और मैं , बस चार लोग थे । हमारे पास ज़मीन नही थी क्योंकि जो ज़मीन हमारे पूर्वजों की थी वह अब ऊँची जाती के लोगों के पास थी क्योंकि किसी ना किसी मजबूरी मे उन्होंने इन लोगों को बेच दी थी । पिता जी बंधुआं मज़दूरी करते थे क्योंकि उन पर हमेशा क़र्ज़ रहता था । मेरी मॉ भी ठुकराइनो और पंडिताइनो के यहॉ काम करती थी । मैं दस साल का था और बडी बहन चौदह साल की । वह कक्षा 9 मे पड़ती थी तथा मैं कक्षा 6 में । मैं भले ही दस साल का था लेकिन ऐक आज्ञाकरी बालक था जो हमेशा अपने माता पिता की बात मानता था । सुबह उठ कर अपनी गायों को जंगल की तरफ़ ले जाता था और फिर स्कूल के लिये तैयार होता था । गॉव मे मात्र ऐक सरकारी इण्टर कॉलेज था तथा उसी मे सब पड़ते थे । मैं पडाई मे हमेशा अव्वल आता था तथा हमेशा गुरूजनों का आदर करता था लेकिन गॉव के कुछ स्वर्णों के बच्चे मुझे नापसन्द करते थे । मैं नही जानता था क्यों ? शायद उतनी उम्र ये सब समझने के लिये काफ़ी नही थी ।
ऐक बार की बात है स्कूल मे ऐक वार्षिकोत्सव समारोह आयोजित किया जाना था । मेरे पास नये कपड़े भी नही थे और मेरे जूते भी बिल्कुल फटे हुये थे । जब भी मेरे जूते फट जाते थे तो मेरी मॉ उसमे टॉका लगा देती और मैं वो जूते दस पनंद्रह दिनों तक और चला लेता । फिर मॉ बार बार ऐसा ही करती जब तक जूतों को फेंक देने की कोई वजह ना हो ।
मैं कभी शिकायत नही करता था क्योंकि वो दिन ऐसे थे की जो कुछ भी मिलता था वही सुकून था । वो दिन ऐसे थे की शायद ही किसी से कोई फ़र्क़ पड़ता था और मस्तिष्क मे पवित्रता इतनी थी की समाज मे व्याप्त भ्रष्टाचार ऐवम बुराईयॉ उसे प्रभावित कर सकती थी ।
मैंने पहली बार पिता जी को बोला कि मेरे स्कूल मे वार्षिकोत्सव है और मेरे पास कपड़े नही है । पिताजी मुझसे बेहद प्रेम करते थे क्योंकि मैं हमेशा पडाई मे अच्छा करता था और बस यही ख़ुशी थी जो मैं उनको दे सकता था । पिताजी ने कहा की वो नये कपड़े ख़रीद लेंगे । मैं खुश था और मैने बहन को बोला की मेरे लिये नये कपड़े आने वाले है । मेरी बहन कभी कोई डिमाण्ड नही करती थी शायद थोडा बड़े होने की वजह से वह घर की नाज़ुक हालत समझती थी । मुझे कुछ नही पता थी की घर कैसे चलता है और कैसे पिताजी जी तोड़ मेहनत कर दो जून की रोटी का इन्तज़ाम करते है । पिताजी ने मेरे लिये ब्लू रंग की जीन्स और ऐक जिन्स की शर्ट ख़रीदी और जब पिताजी घर आये तो मैं ख़ुशी से पागल हो गया । ब्लू रंग की जीन्स , मैने जीन्स इससे पहले कभी नही पहनी थी । स्वर्णों के बच्चो को देखा था बस जीन्स पहनते लेकिन मैं तो हमेशा नीलामी के सैकण्ड हैण्ड कपड़े या फिर सवर्णो द्वारा दान किये गये पुराने कपड़े ही पहनता था । आज नयेपन का अहसास था, नयेपन की उम्मीद थी और जीत जाने की उमंग थी ।
मैने विद्यालय के वार्षिकोत्सव मे ऐक भाषण प्रतियोगिता और निबन्ध प्रतियोगिता मे भी हिस्सा लिया था । मैं अच्छा वक़्ता था , अच्छा लेखक था और अच्छा प्रस्तुतकर्ता भी था । जीतने वालों को ईनाम भी दिया जाना था । मैं तो मानो सातवें आसमान मे था । फिर वार्षिकोत्सक का दिन आया , मैने कपड़े पहने , बडी बहन ने दुलराकर आज मुझे तैयार किया । आज वो मुझे गुड्डे के जैसे सजा रही थी । मैने अपने जूते डाले , मेरे पास जूते नये नही थे । वो पुराने जूते जिस पर मॉ ने एक बार टल्ली चस्पाँ चुकी थी लेकिन वो उधड़ कर खा हो चुकी थी । फिर भी मैं होनहार बीरबान मस्त मौला तैयार होकर चल पड़ा स्कूल । स्कूल में मेरे सब दोस्तों ने मुझे मेरी नई जीन्स के लिये बधाई दी । सबने तारीफ़ की वाह आज तो तुम विलायती लग रहे हो । हम भारतीयों में ये बात शायद ग़ुलामी के समय से ही थी की विलायती होना गर्व की बात माना जाता है । पिता ने भी शायद इसी उम्मीद से नई जीन्स ख़रीदी होगी । फिर स्कूल में भी तरह तरह के लोग होते है जैसे समाज में तरह तरह के लोग होते है । कुछ लड़कियों का झुण्ड मेरे सामने स्टेज के रास ही खड़ा था और खिलखिलाखल हस रहा था । मैं दस साल का बालक शायद इस बात से अनभिज्ञ था कि उनकी हँसी का माजरा क्या है । तभी एक सीनियर जो कक्षा दस में पड़ती थी , ने मुझे बुलाया , वह क़स्बे के नामी ब्राह्मण की लड़की थी । मैं चला गया और वो मेरे कपड़ों की तारीफ़ करने लगी । बाक़ी उसकी सहेलियाँ ज़ोर ज़ोर से हंस रही थी ।
फिर उसने कहा , “कौन लाया तेरे लिये जीन्स ?”
मैं , “ पिताजी ले के आये है “
फिर वो बोली “ऊपर से तो सब ब्यूटीफ़ुल है और नीचे से फटाहुआ पुल है “
दूसरी बोली जब औखाद नहीं होती तो पहनने नहीं चाहिये ।
तीसरी बोली “किसी से मॉग कर लाये होगें ये तो खाना भी मॉग कर खाते है “
सब लड़कियाँ ज़ोर ज़ोर से हंस रही थी ।

मैं शर्म से लाल हो गया था , ये शायद ज़िन्दगी का पहला अवसर था कि ख़ुद पर हीनता महसूस हुयी । मुझे नहीं पता था वे लोग मुझसे नफ़रत क्यों करती थी या फिर इस प्रकार की सोच उनमें कहा से आयी । मैं तो एक ग़रीब परिवार का बच्चा था जिसका किसी से कभी भी कोई द्वेष नहीं था । मैं कुछ नहीं बोला और वो सब लड़कियाँ हँसती रही । मैं एकदम शान्त कौने में खड़ा हो गया, ज़िन्दगी में पहली बार कुछ न होने का अहसास हुआ । मेरा भाषण भारत की आज़ादी के संघर्ष पर था लेकिन मैं आज़ाद महसूस नहीं कर पा रहा था । ख़ैर यह पहला मौक़ा था मेरे जीवन का जिसने एक पाठ सिखाया की जूते फटे होना समाज व्यक्ति की द्ररिदता समझता है लेकिन मैं तो बेहद अमीर था शायद दिल से सोच से । मेरा भाषण अच्छा नहीं हुआ क्योंकि आज़ाद होने का ख़्याल ही चला गया , मैं तो जकड़ा हुआ महसूस कर रहा था ग़रीबी की ग़ुलामी , जाती की ग़ुलामी और हार की ग़ुलामी । मैं भाषण में तीसरे स्थान पर रहा , यह पहला मौक़ा था मैं हार गया था । मेरा निबन्ध में कोई स्थान ही नहीं आया , यह पहला मौक़ा था मैं सांत्वना पुरस्कार भी न पा सका । बड़ी बहन को कुछ महसूस हुआ कि मैं तो बहुत ख़ुश था आस्वश्त था फिर अच्छा क्यों नहीं परफ़ार्म कर पाया । घर जाकर बड़ी बहन ने पुछा क्या हुआ “सोनू “
अब तो पिताजी ने तुझे नयी जीन्स शर्ट भी ला कर दी लेकिन तू तो बहुत पीछे हो गया ।
मुझे ग़ुस्सा आया और रोना आ गया कि बस जीन्स शर्ट दिये ना , मुझे जूते नहीं लाये नये , ये फटे हुये जूते दिये जिसमें सबने मेरी बेइज़्ज़ती की है ।
मैं गहरी सिसकियाँ लेने लगा , दीदी ने पुछा की बात क्या हो गयी । मैंने पूरा वाक्या बताया । बड़ी बहन ने ग़ुस्सा ज़ाहिर किया और बोला की मैं उन लोगों को बताती हूँ कल ।
हम उनसे मॉग के खा रहे है क्या ??
मेहनत करते है भीख नहीं मंगते ।
शाम को पिताजी आये और दीदी ने पूरा वाक्या पिताजी को बताया । पिताजी को बताते बताते दीदी रोने लगी उसके ऑसू छलकता देख मेरे भी ऑसू निकल गये । पिताजी ने पूरा वाक्या सुना और थोड़े से मुस्कुरा दिये उन्होंने बताया की बेटा बड़े कमज़ोर हो तुम !
सिर्फ़ इस बात पर बुरा मान गये की तुम्हारे जूते फटे होने पर किसी ने तुम्हारा मज़ाक़ बना दिया । हमने तो ज़िन्दगी भर दुख सहे है । राजपूतों की , ब्राह्मणों की , ठेकेदारों की , साहूकारों की सबकी बंधुऑ मज़दूरी की है और इनकी खिल्लीयॉ , ताने और क्रूरता सब हँसते सही है । तुमको इसलिये तो पड़ा रहे है बेटा की ताकी तुम मज़बूत बनो , ताकी तुम वो सब ना सहो जो हमने सहा है । ताकी तुम अव्वल बनो ।
बेटा तुम उनको जबाब दोगे तो क्या होगा ?
कल उनके पिताजी आयेंगे हम लोगों को खरी खोटी सुना के चल देंगे । हम कुछ नहीं कर पायेंगे । जनाब देना है बेटा तो मेहनत कर के दो , तरक़्क़ी कर के दो और उनसे बेहतर बन के दो । ये जबाब तुम्हें हमेशा तरक़्क़ी के रास्ते पे ले जायेगा और एक दिन उन लोगों को अपनी भूल का अहसास होगा ।
मैं उस दिन रात भर नहीं सोया । पिताजी के शब्द मानो कान में गूँज रहे थे । मैंने वो उधड़े हुये जूते तकिये के पास रख दिये थे । शायद प्यार हो गया था उन जूतों से । रात भर ख़्याल करता रहा की बड़ा होकर कुछ बनुगॉ तो नये नये जूते ख़रीदूँगा ।शायद दस साल के बच्चे में जीवन के सत्यार्थ का प्रकाश प्रज्ज्वलित हो रहा था , शायद दस साल के बच्चे में एक गम्भीर मस्तिष्क का जन्म हो रहा था और शायद दस साल के बच्चे में एक बेहतर मानव की रूह का द्वार प्रकट हो रहा था ।
सुबह के वक़्त नींद आ गयी । सात बजे नींद खुली जब मॉ दूध का गिलास ले के आई । मॉ मुस्कुरा रही थी , मेरी तो ऑंख भी अच्छे से नहीं खुली थी तभी मॉ ने कहा की बाहर आ जा तेरे लिये कुछ ख़ास है ।
मैं जैसे ही बाहर गया देखा नये जूतों का डिब्बा रखा हुआ था । मैं चिल्लाया “मेरे लिये है “
मॉ ने कहा , “हॉ कल जो इतना रो रहा था तेरे पिताजी सुबह छ बजे ही लाला से पास गये थे “
मेरे हल्के से ऑसू छलक गये । नये चमचमाते सफ़ेद जूते । मैंने कभी ये भी नहीं पुछा की पिताजी जूते उधार लाये हैं या पैसे देकर । बस पिताजी पर बड़ा गर्व महसूस हो रहा था । फिर कभी ज़िन्दगी में जूतों के लिये ज़िद्द नहीं की , फिर कभी जूतों के लिये नहीं रोया । उन सब लड़कियों को भी दिल से माफ़ कर दिया । बाक़ी ख़ूब संघर्ष किये और पडाई की । फिर बाक़ी की ज़िन्दगी आसान हो गयी । वो उधड़े हुये जूते आज भी संभाल कर रखे है । आज पच्चीस साल हो गये हैं इस वाक्ये को । मेरी बेटी आज दस साल की हो गयी उसी को यह कहानी बता रहा हूँ क्योंकि उसने कभी उधड़े हुये जूते नहीं देखे ।
उसने कभी जाती नहीं देखी । उसे ये जूते दिखा रहा हूँ ताकी वो मेरे मार्मिक जीवन को समझे , ताकी वह हृदय में करुणा बसाये , ताकी वह किसी का हृदय ना तोड़े , ताकी वह किसी उधड़े जूते वाले की खिल्ली न उड़ाये ताकी वह बेहतरीन इंसान बन सके । ताकी वह समझ सके की मेहनत और लगन से सब जबाब दिये जाते है और सफलता से बड़ा कोई ज़बाब ही नहीं है ।
बेटी तुम भी ये जूते संभालना और जब तुम्हारी बिटीया /बेटा दस साल का हो जायेगा तो उसे मेरे महान पिता के बारे में बताना, मेरे बारे में बताना और मेरे उन उधड़े हुये जूतों के बारे में बताना ।
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Regards- The Lost Monk.
7 replies on “उधडे जूते”
A positive and inspirational story.
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Thanks Rohit for appreciating the story 💕😊
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Nice story bhai
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Thanks 🙏
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Nice…
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कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देने वाली कहानी।
आपकी कठिनाई आज कहानी का रूप लिया है।
बहुत ही प्रेरणा दायीं
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Thanks 🙏
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