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poetry

मन के भीतर

दुख: की काली घटाएँ बहुत घनघोर हुयी है

हे रक्षक ! तुम जागो अब तो भोर हुयी है

मन के भीतर भाव भँवर क्यों अभिभूत हुऐ है

किस वेदना की पीड़ाओं मे ये क्षीण हुऐ है

दुख: की काली घटाएँ बहुत घनघोर हुयी है

हे रक्षक ! तुम जागो अब तो भोर हुयी है

तुम कुम्हार बनो अपनी क़िस्मत की मिट्टी के

तुम जौहरी बनो रत्नों के पारख बन कर

हे रक्षक ! श्रम की ऑच में जल भुनकर

तुम रौशनी बनो राहगीरों की मशाल बनकर

मन के भीतर भाव भँवर क्यों अभिभूत हुऐ है

किस वेदना की पीड़ाओं मे ये क्षीण हुऐ है

हे रक्षक ! अब तो जागो भोर हुयी है

हे रक्षक ! कुछ बीज बनो करूणा के तुम

जिसके अंकुर पनपे तो फूटे प्रेम हरियाली

जो तृप्त करे सूखती धरा की उर्वरता

जो असंगत कोटी मे समता का स्वर फूंके

मन के भीतर भाव भँवर क्यों अभिभूत हुऐ है

किस वेदना की पीड़ाओं मे ये क्षीण हुऐ है

हे रक्षक !

तुम निश्छल विद्रोही बन कर बिगुल बजा दो

तुम जनसेवक बनकर इंक़लाब कर दो

तुम कलम उठाकर उसे हथियार बना दो

तुम हर ख़्वाब को हक़ीक़त में साकार कर दो

दुख: की काली घटाएँ बहुत घनघोर हुयी है

हे रक्षक ! तुम जागो अब तो भोर हुयी है

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