अनकही
जो उकेरती थी ज़ेहन के ख़्वाबों को ,
वो तख्ती वो स्याही कहीं गुम हो गयी ।
जो बुनते थे आवारा परिन्दों के सपने ,

वो मिट्टी , वो बर्तन कहीं खो से गये ।
उन सपने से ख़ुद को हँसाने की चाहत ,
हिसाबों की उलझन में कहीं खो सी गयी ।
जो उकेरती थी ज़ेहन के ख़्वाबों को ,
वो तख्ती वो स्याही कहीं गुम हो गयी ।
कहानियों में देखी वो सच्ची मोहब्बत ,
किताबों के पन्नों से गुम हो गयी ।
वो दोस्ती , वो यारी , वो रिश्तों की रौनक़ ,
दूरियों मजबूरियो से धुमिल हो गयी।
जो उकेरती थी ज़ेहन के ख़्वाबों को ,
वो तख्ती, वो स्याही कहीं गुम हो गयी !
One reply on “अनकही ………Lalit Hinrek”
Thanks 😊
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